केवल गिरगिट की बात ही नहीं है, तमाम तरह के प्राणियों को प्रकृति ने आत्मरक्षा में अपने रंग-रूप को बदलने की सामर्थ्य दी है. गिरगिट जिस परिवेश में रहते हैं उनका रंग उसी से मिलता जुलता होता है ताकि वे दूर से नज़र न आएं. यह उनकी प्रणय शैली भी है, अपने साथी को आकर्षित करने के लिए वे रंग बदलते हैं. उनकी ऊपरी त्वचा पारदर्शी होती है जिसके नीचे विशेष कोशिकाओं की परतें होती है जिन्हें क्रोमैटोफोर कहा जाता है. इनकी बाहरी परत में पीले और लाल सेलों की होती है. निचली छेद होते हैं, जिनसे गुज़रने वाली रोशनी नीले रंग की रचना करती है. ऊपरी रंगत पीली हो दोनों रंग मिलकर हरे हो जाते हैं. सबसे आखिरी परत मेलनोफोर से बनी होती है. इसमें मेलनिन नामक तत्व होता है. जब मेलनोफोर सेल सक्रिय होते हैं, तब गिरगिट नीले और पीले रंग के मिश्रण से हरा दिखाई देता है या नीले और लाल रंग का मिश्रण दिखाई देता है. जब गिरगिट गुस्से में होता है तो काले कण उभर आते हैं और गिरगिट गहरा भूरा दिखाई देता है. तितलियों का भी रंग बदलता है, लेकिन वह हल्के से गहरे या फिर गहरे से हल्के रंगों में ही परिवर्तित होता है, जबकि गिरगिट के कई रंग होते हैं. इनके मस्तिष्क को जैसे ही खतरे का संदेश जाता है, इनका दिमाग उन कोशिकाओं को संकेत भेजता है और यह कोशिकाएं इसी के अनुरूप फैलने व सिकुड़ने लगती हैं और गिरगिट का रंग बदल जाता है.
कोई टिप्पणी नहीं: